हे नाथ गोविन्द, हरे मुरारी,
हे नाथ नारायण, वासुदेवा!
महाभारत के भयंकर समर के लम्बे उपरांत बाद, हस्तिनापुर
में अपने सानिध्य बैठे अपने बालसखा, अपने सारथी कृष्ण से व्यग्र अर्जुन ने
आग्रह किया, हे कृष्ण ! कृपा कर मुझे एक बार फिर वह ईश्वरीय गीत “गीता” सुनाएँ. वह
गीत जिसने मुझे विक्षिप्तता के जटिल आलिंगन से मुक्ति दिलाई थी, जिसने मेरी
प्रज्ञा को स्थापित किया था और जिस स्थितप्रज्ञता के फलस्वरूप अपनी अल्प क्षमताओं
के बावजूद उन्ही के संगठन से मैं अपनी विवशताओं के परे जा, शक्ति संपन्न विशाल कौरवी सेना पर विजय प्राप्त की थी. हे
कृष्ण ! मेरे ह्रदय पर बोझ है , स्तिथि पुनः पूर्व की भांति द्वंदात्मक है .मेरा
मन निर्णय की क्षमता को खोता जाता है मेरी किंकर्तव्यविमूढ़ता अपनी पराकाष्ठा पार
किये जाती है. हे मित्र मुझे उपदेशना के क्षणों में वापस ले चलिए जिन क्षणों में मैंने
अपने
आप को पुनःसंगठित किया था और ऐसा
कर, प्रतिद्वंदी सेना पर विजय हासिल की थी. हे मित्र! मेरी इस स्तिथि पर अनुकम्पा
कर आप वह ईश्वरीय गीत मुझे इसी क्षण सुनाएँ .
हे अर्जुन ! इस क्षण कितना भी मैं प्रयास करूँ उस गीत का
पुनार्गायन संभव नहीं. कुरुक्षेत्र के समरांगन में जिस कृष्ण ने आपको वह गीत
सुनाया था वह मैं नहीं. जिस कृष्ण ने उन क्षणों में वह गीत गाया था वह मैं नहीं था. उन घड़ियों में मैं लौकिकता
के परे अपनी योगारूढ़ स्तिथि में पुरातन ऋषि मुनियों की शूक्ष्म्दार्शिता एवं चिंतन
से विरचित दर्शन को तुम्हारे हितार्थ स्मृतियों
के पटल से उतार पाया था और ऐसा मैं
उस क्षण प्राप्त दिव्यता के फलस्वरूप कर पाया था. आज जिस कृष्ण से तुम्हारी यह अपेक्षा है वह वापस अपनी लौकिक नश्वरता के अधीन
है और इस अधीनता के परे जाना इतना सरल
नहीं.
हे नाथ ! हे गोविन्द ! हे मुरारी !हे नारायण !
हे वासुदेव ! यह कैसे वचन. आप ही तो थे, जिन्होंने मुझे उस विषाल समरांगन में,
मुझे मेरी नश्वरता से शाक्शात्कार कराया था. मेरी अल्प शक्तियों को सुनियोजित किया
था. मेरी विवशता से अनुप्राणित मेरे
अतर्कों का आपने ही अपने मौन से समर्पण कराया था. जब मेरे भ्रम मुझे जकड़ते जाते थे, आप
ही ने तो अपने निर्विघ्न मौन से मेरे अहंकार से उत्पन्न मेरे अन्तः विषाद को ध्वस्त किया था, तदुपरांत अपनी
उपदेशना से मुझे विजय पथ पर आरूढ़ किया. आज जब पुनः मैं विषाद से संतप्त हूँ आप किस
तरह इस निर्दयता को प्राप्त हुए जाते हैं? हे नाथ! इन विषम स्तिथियों में मेरे साथ
यह कैसी लीला, क्यों इस तरह मेरे विषाद का ऐसा उपहास?
हे अर्जुन! हे पार्थ! तुम उस पल का स्मरण करते
हो जब तुमने मुझे अपना सारथी नियुक्त कर अपनी असीम आस्था, प्रेम और समर्पण भावना से मुझे विवश कर दिया था.
तुम्हारी उसी अखंड आस्था के वशीभूत मुझे,
अपने सार्थित्व की वस्तुता को स्थापित करने के लिए अपनी नश्वर इन्द्रियो, अपने मन, अपनी बुद्धि अपने अहंकार के पार जा स्वयं को अपने शुद्ध आत्म स्वरुप में स्थापित करना पड़ा था. उसी ब्रह्मी स्थिति
में मैं तुम्हारा कुशल सारथी एवं तुम्हारी कुशाग्र चैतन्य बुद्धि बन तुम्हारा निर्देशन कर सका. वह मेरी ब्रह्म
में स्तिथ चैतन्यता थी जिसके प्रकाश में तुमने अपनी शक्तियों और अक्क्षम्ताओं का
अवलोकन किया और इस तरह कुरुकक्षेत्र के उस विशाल समर में मैं तुम्हे निर्देशित कर
पाया और तुम निर्देशित हो सके.
आज जब
तुम पुनः विषाद के वशीभूत व्यग्र हुए जाते
हो और मुझसे उस दिव्य गीत की मांग करते हो, मैं स्वयं को असमर्थ पाता हूँ क्योंकि इस वक्त मैं उस योगारूढ़ स्तिथि से अवरोहित हूँ और
तुम्हारी ही तरह इन नश्वर उपाधियों से परिछिन्न हूँ. वह जिसने तुम्हे युद्ध में
निर्देशित किया था वह अक्षर चेतना थी और आज जिस कृष्ण के सानिध्य में तुम हो वह
उसका मानवीय मूर्त, क्षर स्वरुप है. अतः
हे अर्जुन! यह जो आज तुम्हारे द्वारा मुझसे अपेक्षित है वह तत्काल संभव नहीं. मेरी चेतना आज मेरे
ही नश्वर अहंकार, मेरी बुद्धि, मेरे मन और
मेरी इन्द्रियों की वर्चस्वता तादात्म्य से, प्राणी की अधीनता को प्राप्त और
परिछिन्न है.
हे माधव ! यह निष्ठुरता क्यों? एक आप ही तो
मेरे पूरे जीवन काल के विषादों के कृष्ण, उसके हरता रहे हैं. आप ही तो वह पालनहार
हैं जिसकी करुणामयी छाया में मैंने जीवन की प्रचंड उष्णता में भी शीतल समीर का
अनुभव किया. जल, आकाश, अग्नि वायु की
शूक्ष्मता, जिनसे भी आप शूक्ष्म हैं, आपके दर्शन से कौन और क्या परे है? सारा जगत
जिस पर अध्यस्त है उसकी परिधि से कोई भी ज्ञान किसी भी क्षण बाहर कैसे? हे सारी
आभासित सम्प्रभुताओं के प्रभु! मैं अपने
अपराधो से दण्डित आपका सहारा ढूंढता हूँ और आप मुझे, मेरे इस स्वरुप को त्यागते
प्रतीत होते हैं. हे प्रभु! मैं राजकीय भोग विलासिता में लिप्त आपसे दूर
होता चला गया, शायद इसी कारण आज आप मुझसे नाराज नजर आते हैं?
कुछ
समय के लिए तो आपने मुझे भी उस योगारूढ़ स्थिति में प्रवेश करा दिया था जिसके
सान्निध्य और प्रकाश में मैं अपनी नश्वर उपाधियों का दिव्य प्रयोग कर पाया था. क्या
लौकिक विषयों के द्वारा मेरे अपहरण
ने मुझे ऐसे पतन को प्राप्त करा दिया है
की चेतन से दूर मैं चैतन्य शून्यता को प्राप्त हो चुका हूँ? क्या मेरा पतन इतना
गंभीर है की अब इस पतोन्मुख प्रवृत्ति से
निवृत्ति संभव नहीं? हे नाथ इन स्तिथियों
में मेरा परित्याग न करें. यदि आप निवृत्ति मार्ग पर मुझे स्थपित नहीं करेंगे तो मेरी निम्न
प्रवृत्तियां मुझे जन्मजन्मान्तर अपनी बेड़ियों
में जकड़ रखेंगी फिर मैं किस तरह इसी जीवन में मोक्ष को प्राप्त कर सकूंगा?
हे पार्थ! तुम ज्ञानियों से बात करते हो, फिर
किस ज्ञान की पुनर्स्थापना चाहते हो? स्मृतिपटल पर अंकित अनुभव ही पुनर्जम के कारण
हैं जिसका ज्ञान तुम्हारी प्रज्ञा से इस
क्षण अनावृत और तुम्हारे चितन और शब्दों से प्रक्षेपित हैं. स्मृति पटल पर अंकित अनुभव ही
अपना अपना अस्तित्व ढूंढते हैं और जीवनों और मृत्युयों की श्रृखला में प्राणी को
स्थापित करते हैं. ये अनुभव ही उन नूतन अनुभवों के सक्रीय रंजक हैं जिनके रंजन से
वह दिव्य प्रकाश, जो तुमसे अपेक्षित है. रंजित अनुभव की इस मायावी रचनात्मकता ,इनसे
प्रेरित इच्छाएँ, उनसे उठते राग और द्वेष ही मनः विक्षिप्तता के कारक हैं. इन
अनुभवों का, इनसे प्रेरित नए अनुभवों के क्षय से और फिर नए अनुभवों के यथार्थ
चिंतन एवं अवलोकन से ही मोक्ष का रास्ता प्रशस्त हो सकता है. पर हे अर्जुन! आज तुम
एक विशयोंमुख स्वछन्द शाशक हो. फिर किस तरह मोक्ष की पात्रता रखते हो?
हे माधव! मेरी विसंगतियों का आपके द्वारा ऐसा
सात्विक प्रकाशन मुझे और भी विषादित किये जाता है. मैं
भयाक्रांत हूँ, मेरे दुष्कृत्य मुझे घेरते
जाते है. मैं अपने वैभव प्रदर्शन से भ्रमित यह स्मरण नहीं रख पाया
की आप मेरे सारे कृत्यों के दृष्टा
हैं. मैं शर्मसार हूँ किस तरह आपके सम्मुख बना रहूँ? मेरे मोक्ष के सारे मार्ग
आपके यथार्थ प्रकाशन से अवरुद्ध नज़र आते
हैं? अब मेरे लिए शायद कुछ भी करणीय नहीं है क्यों की आप जो मेरी चेतना के स्रोत
हैं अब वही मुझसे विलग हुए जाते हैं, क्या यह मृत्यु नहीं?
यह तुम्हारी पहली आसीन मृत्यु नहीं और न ही यह पहला पुनर्जन्म. इसी जीवन काल
में तुमने कई जन्म लिए और कई बार मृत्यु को प्राप्त हुए. तुम्हारे शैशवकाल की मृत्यु
तुम्हारे कैशौर्य का जन्म था, तुम्हारे
कैशौर्य की मृत्यु तुम्हारे यौवन का जन्म था, तुम्हारे यौवनावस्था की मृत्यु
तुम्हारे वृधावस्था का जन्म होगा और तुम्हारे जीर्ण शीर्ण, क्षय को प्राप्त हुए
वृधावस्था की मृत्यु तुम्हारे पुनर्जन्म का कारण होगा. इस यात्रा में जो अजन्मा,
अक्षर अमृत स्वरुप था, वह जहाँ था वहीँ स्थित है, निर्विकार, निर्लिप्त सूत्र जिसने
तुम्हारे इस जीवन मृत्यु की अनुभव श्रृंखला को धारण किया और आगे भी धारण करेगा. तुम्हारी अतृप्त वासनाओं के कारण तुमसे नयी
मानवीय उपाधियों का वरण करायेगा.
जन्म
की पुनरावृत्ति ही मृत्यु है. जन्म और मृत्यु से निवृत्ति ही मोक्ष है जो इस
मृत्युलोक ,और पितरों के आवास, स्वर्ग से भी परे अपूर्नावृत्ति की स्थिति है. तुम
किस कारण भयभीत हो? मृत्यु से? मृत्युलोक से या पुनर्जन्म से ? तुम ईश की
प्राप्ति को व्याकुल तो नज़र आते हो पर अपने आचार और आग्रह में इष्ट और अनिष्ट का
भेद नहीं करते. तुम एक ऐसे अज्ञान के गर्त में चले गए हो जिससे आवृत तुम्हारा मन
चेतना से एक अति शोचनीय दूरता को प्राप्त हो चुका है. तुम अपने ही रचे व्यूह के मध्य कैद हो . इस व्यूह रचना को तुम
ही हटा सकते हो यदि वही तुम्हारे जीवन का
संकल्प हो. इस व्यूह से बाहर अपने अहंकार से पोषित “अहम् “ भाव से दूर “मैं” में स्थिति की पात्रता, बना सकोगे.
हे दयालु ! हे
नाथ ! मैं क्या करूं ?
............... क्रमशः
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